
भारतीय उपमहाद्वीप और युक्तिवाद : पश्चिमी पुनर्जागरण बनाम भारतीय पुनर्जागरण की संभावनाएँ
“मनुष्य तब तक स्वतंत्र नहीं हो सकता, जब तक उसका विचार स्वतंत्र न हो।”
भारत आज विज्ञान और तकनीक की दौड़ में दुनिया के साथ कदम से कदम मिला रहा है। मंगलयान से लेकर कृत्रिम बुद्धिमत्ता तक हमारी उपलब्धियाँ गौरवपूर्ण हैं। किंतु जब हम समाज की मानसिकता देखते हैं, तो एक गहरी विडंबना उभरती है—हम अंतरिक्ष की यात्रा कर सकते हैं, परंतु अब भी ग्रह-नक्षत्रों की मनगढ़ंत व्याख्या पर विश्वास करते हैं। यही विरोधाभास दर्शाता है कि वैज्ञानिक युक्तिवाद अभी भी हमारी चेतना में स्थापित नहीं हो पाया।
👉 पश्चिमी पुनर्जागरण : संदेह से जन्मी नई सभ्यता
14वीं से 17वीं शताब्दी के बीच यूरोप में “Renaissance” केवल कला और साहित्य का उत्थान नहीं था। वह बौद्धिक क्रांति थी, जिसने धार्मिक कट्टरता को चुनौती दी और “युक्ति” को ज्ञान का आधार बनाया।
* गैलीलियो ने कहा—प्रकृति का रहस्य ईश्वर के ग्रंथ में नहीं, बल्कि गणित और अवलोकन में है।
* डेसकार्टेस ने उद्घोष किया—“I think, therefore I am” (मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ)।
* कांट ने स्पष्ट किया—“Enlightenment is man’s emergence from his self-imposed immaturity.”
इस पुनर्जागरण ने युक्तिवाद को पश्चिमी समाज की आत्मा बना दिया। वहाँ से आधुनिक लोकतंत्र, विज्ञान और मानवाधिकार की नींव पड़ी।
👉 भारतीय उपमहाद्वीप : अधूरा पुनर्जागरण
भारत में भी तर्क की परंपरा कोई नई नहीं थी। चार्वाक, बुद्ध, महावीर, सांख्य और न्याय दर्शन ने युक्ति को सर्वोच्च मानदंड माना। लेकिन इस परंपरा को धीरे-धीरे भक्ति, कर्मकांड और सत्ता-नियंत्रित व्याख्याओं ने ढक दिया।
19वीं–20वीं शताब्दी में राजा राममोहन राय, ज्योतिराव फुले, पेरियार, नेहरू और आंबेडकर जैसे नेताओं ने तर्क और सामाजिक सुधार की अलख जगाई। किंतु यह प्रयास अभी भी सामाजिक संरचना के गहरे स्तर तक नहीं पहुंचा।
👉 तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य
* पश्चिम में पुनर्जागरण धर्म के विरुद्ध खड़ा हुआ, और धीरे-धीरे राज्य व धर्म का विभाजन सुनिश्चित हुआ।
* भारत में धर्म-संस्कृति और राजनीति गहरे गुंथे हुए हैं। यहाँ युक्तिवाद को अक्सर धर्मविरोध समझ लिया जाता है।
* पश्चिम में “संदेह” बौद्धिकता का आधार बना, जबकि भारत में “आज्ञाकारिता” को सद्गुण माना गया।
* यूरोप में पुनर्जागरण ने समूह-चेतना को बदला, भारत में सुधार आंदोलनों ने मुख्यतः शहरी शिक्षित वर्ग को छुआ।
👉 भविष्य की संभावना : क्या भारत दूसरा पुनर्जागरण झेल सकता है?
आज भारत जिस चौराहे पर खड़ा है, वह पश्चिमी पुनर्जागरण की याद दिलाता है।
* डिजिटल युग ने सूचना की बाढ़ ला दी है, परंतु उसमें विवेक का अभाव है।
* विज्ञान की उपलब्धियाँ विशाल हैं, परंतु उनका उपयोग तार्किक जीवनशैली बनाने में नहीं हो रहा।
* युवा वर्ग प्रश्न तो पूछता है, परंतु सामाजिक भय और राजनीतिक ध्रुवीकरण उसे दबा देता है।
यदि भारत ने शिक्षा, मीडिया और सार्वजनिक विमर्श में युक्तिवाद को केंद्रीय मूल्य नहीं बनाया, तो तकनीकी प्रगति केवल बाहरी आवरण बनकर रह जाएगी।
भारतीय उपमहाद्वीप को केवल “डिजिटल सुपरपावर” नहीं, बल्कि युक्तिवादी सुपरपावर बनना होगा। सच्चा पुनर्जागरण तब आएगा जब हर नागरिक यह साहस करेगा— “मैं आस्था रखता हूँ, परंतु हर विचार को तर्क की कसौटी पर परखूँगा।”
यही भारतीय समाज का 21वीं शताब्दी का आत्मसंघर्ष है : क्या हम पश्चिम की तरह संदेह से जन्मे पुनर्जागरण की राह पर बढ़ेंगे, या फिर अंधविश्वास और परंपरागत आज्ञाकारिता में ही उलझे रहेंगे?